मन चंगा तो कठौती में गंगा
हममें से ज्यादातर लोगों ने यह उक्ति कभी न कभी अवश्य सुनी होगी।
क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में लोग इसे कभी कभार बदलकर व्याख्या करते हैं।
एक छोटी सी लोककथा-
एक बार वाराणसी के घाट पर महारानी गंगा स्नान करने गई ।
स्नान करते समय उनका आभूषण पानी में खो गया।
आभूषण रानी को परमप्रिय था।
महल आकर वह उसे वापस पाने के लिए ज़िद करने लगीं।
राजा समेत सभी विद्वान परेशान थे कि वे गहना को कैसे पता करें।
तभी एक पुरोहित ने कहा महाराज इसे केवल एक ही व्यक्ति ढूंढ सकता है
- रविदास।
लोगों को यह हज़म नहीं हो रहा था।
मरता क्या न करें,
राजा आखिरकार तैयार हुए।
सेना के टुकड़ियां भेजी गई।
रैदास उन्हें देखकर भवचक हो गए।
पुरोहित गंगा से आभूषण लाने के लिए जोर दिया।
उनको आश्चर्य हुआ कि वे तो गंगा स्नान करने जाते नहीं, फिर वे भला इसे कैसे ढूंढ सकते हैं।
सिपाही आगे बढ़े।
रैदास ने गंगा मैया को याद करते हुए कहा कि मां मैं तो सदैव तत्पर रहते हुए अपने जूते सिलने के कामकाज में लगा रहा।
मेरी मदद करो मां।
बस क्या था काफी जोर से आवाज हुई एवं गन्दे पानी से भरे कठौती से आभूषण प्रकट हुआ।
लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
राजा ने यह जानकार उनसे इस रहस्य को बताने का अनुरोध किया।
महान संत रविदास ने उन्हें बताया
कर्म ही पूजा है।
(Work is worship.)
ऐसे थे महान रविदास।
संक्षिप्त जीवन परिचय
संत रविदास का जन्म वाराणसी के निकट मंडूर नामक गाँव में संवत् 1433 को माघ पूर्णिमा के दिन हुआ। उनके विभिन्न नाम हैं—रविदास, रैदास, रादास, रुद्रदास, सईदास, रयिदास, रोहीदास, रोहिदास, रूहदास, रमादास, रामदास, हरिदास।
इनमें से रविदास तथा रैदास काफी प्रसिद्ध हैं।
बचपन से ही उनकी रुचि प्रभु-भक्ति और साधु-संतों की ओर हो गई थी। बड़ा होने पर उन्होंने चर्मकार का अपना पैतृक काम अपना लिया। जूता गाँठते हुए वे प्रभु भजन में लीन हो जाते। जो कुछ कमाते, उसे साधु-संतों पर खर्च कर देते। रविदास ने उस समय के प्रसिद्ध भक्त गुरु रामानंद से दीक्षा ली। उन्होंने ऊँच-नीच के मत का खंडन किया। वे अत्यंत विनीत और उदार विचारों के थे। उनकी भक्ति उच्च दर्जे की थी। वे कठौती में ही गंगाजी के दर्शन कर लिया करते थे। ‘संत रैदास की वाणी’ में 87 पद तथा 3 साखियों का संकलन ‘रैदास’ के नाम से हुआ है, जिनमें से लगभग सभी में ‘रैदास’ नाम की छाप भी मिलती है। प्रस्तुत पुस्तक में संत रविदास के आध्यात्मिक जीवन, उनकी रचनाओं, उनके जप-तप और समाज-उद्धार के लिए किए गए कार्यों का सीधी-सरल भाषा में विवेचन किया गया है।.
इस प्रकार रविदास जी भारत के उन चुनिंदा महापुरुषों में से एक हैं जिन्होंने अपने दर्शन से सारे संसार को एकता, भाईचारा पर जोर दिया। इनकी महिमा को देख कई राजा और रानियां इनके शरण में आए। समाज में फैली कुरीति जैसे जात पात के अंत के लिए इन्होंने प्रभावी ढंग से काम किया।
इनका धाम
पंथ के सिद्धांत
धन्य है भारत जहां रविदास जैसे संत अवतरित हुए।
इस पृष्ठ पर आने के लिए
आपका आभार एवं धन्यवाद।
Share साझा करने के लिए अग्रिम धन्यवाद 🙏
हममें से ज्यादातर लोगों ने यह उक्ति कभी न कभी अवश्य सुनी होगी।
क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में लोग इसे कभी कभार बदलकर व्याख्या करते हैं।
एक छोटी सी लोककथा-
एक बार वाराणसी के घाट पर महारानी गंगा स्नान करने गई ।
स्नान करते समय उनका आभूषण पानी में खो गया।
आभूषण रानी को परमप्रिय था।
महल आकर वह उसे वापस पाने के लिए ज़िद करने लगीं।
राजा समेत सभी विद्वान परेशान थे कि वे गहना को कैसे पता करें।
तभी एक पुरोहित ने कहा महाराज इसे केवल एक ही व्यक्ति ढूंढ सकता है
- रविदास।
लोगों को यह हज़म नहीं हो रहा था।
मरता क्या न करें,
राजा आखिरकार तैयार हुए।
सेना के टुकड़ियां भेजी गई।
रैदास उन्हें देखकर भवचक हो गए।
पुरोहित गंगा से आभूषण लाने के लिए जोर दिया।
उनको आश्चर्य हुआ कि वे तो गंगा स्नान करने जाते नहीं, फिर वे भला इसे कैसे ढूंढ सकते हैं।
सिपाही आगे बढ़े।
रैदास ने गंगा मैया को याद करते हुए कहा कि मां मैं तो सदैव तत्पर रहते हुए अपने जूते सिलने के कामकाज में लगा रहा।
मेरी मदद करो मां।
बस क्या था काफी जोर से आवाज हुई एवं गन्दे पानी से भरे कठौती से आभूषण प्रकट हुआ।
लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
राजा ने यह जानकार उनसे इस रहस्य को बताने का अनुरोध किया।
महान संत रविदास ने उन्हें बताया
कर्म ही पूजा है।
(Work is worship.)
ऐसे थे महान रविदास।
संक्षिप्त जीवन परिचय
संत रविदास का जन्म वाराणसी के निकट मंडूर नामक गाँव में संवत् 1433 को माघ पूर्णिमा के दिन हुआ। उनके विभिन्न नाम हैं—रविदास, रैदास, रादास, रुद्रदास, सईदास, रयिदास, रोहीदास, रोहिदास, रूहदास, रमादास, रामदास, हरिदास।
इनमें से रविदास तथा रैदास काफी प्रसिद्ध हैं।
बचपन से ही उनकी रुचि प्रभु-भक्ति और साधु-संतों की ओर हो गई थी। बड़ा होने पर उन्होंने चर्मकार का अपना पैतृक काम अपना लिया। जूता गाँठते हुए वे प्रभु भजन में लीन हो जाते। जो कुछ कमाते, उसे साधु-संतों पर खर्च कर देते। रविदास ने उस समय के प्रसिद्ध भक्त गुरु रामानंद से दीक्षा ली। उन्होंने ऊँच-नीच के मत का खंडन किया। वे अत्यंत विनीत और उदार विचारों के थे। उनकी भक्ति उच्च दर्जे की थी। वे कठौती में ही गंगाजी के दर्शन कर लिया करते थे। ‘संत रैदास की वाणी’ में 87 पद तथा 3 साखियों का संकलन ‘रैदास’ के नाम से हुआ है, जिनमें से लगभग सभी में ‘रैदास’ नाम की छाप भी मिलती है। प्रस्तुत पुस्तक में संत रविदास के आध्यात्मिक जीवन, उनकी रचनाओं, उनके जप-तप और समाज-उद्धार के लिए किए गए कार्यों का सीधी-सरल भाषा में विवेचन किया गया है।.
इस प्रकार रविदास जी भारत के उन चुनिंदा महापुरुषों में से एक हैं जिन्होंने अपने दर्शन से सारे संसार को एकता, भाईचारा पर जोर दिया। इनकी महिमा को देख कई राजा और रानियां इनके शरण में आए। समाज में फैली कुरीति जैसे जात पात के अंत के लिए इन्होंने प्रभावी ढंग से काम किया।
इनका धाम
पंथ के सिद्धांत
धन्य है भारत जहां रविदास जैसे संत अवतरित हुए।
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आपका आभार एवं धन्यवाद।
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